मेरे अंदर भी पत्रकार बनने की सारी काबिलियत थी
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मुकेश नेमा की कलम से एक व्यंग
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एक वक्त था जब मैं वाक़ई पत्रकार बनने की सोचता था। पत्रकार बनने की पूरी क़ाबिलियत थी भी मुझमें । गणित विज्ञान से कुत्ते बिल्ली वाला बैर था, हमारे जमाने में ऐसे लड़के बीए की क्लास में धकेल दिये जाते थे । पर मैं धकेला गया जीव नहीं था, स्कूल पास करते ही मैं खुद बिना अपने ख़तरनाक बाप को खबर किये, नाक की सीध में बीए की क्लास में पहुंचा और अंधों में काना राजा साबित हुआ ।
ये वो दिन थे जब बीए करने वालों से कुछ होने बनने की उम्मीद की ही नहीं जाती थी, बीए करने वाले इसी वजह से निश्चिंत जीव होते थे । कुछ होकर दिखाने का कोई टेंशन होता ही नहीं था । सड़कों पर भटकते साँडो की तरह बेपरवाह, बिगड़े हुए , उल्लासित जीव । उनके खाते में कुछ हो जाने के बुरे सपने होते नहीं थे । बाप की दुकान उनकी पहले से तय मंज़िल थी । दुकान विहीन बाप की औलाद होने की हालत में यदि कल बाबत सोचने की मजबूरी आ ही जाये तो सोच की सुई किसी हाईस्कूल के मास्टर, वकील या पत्रकार होने पर अटक जाती थी ।
अपनी बात की जाये । जैसा कि मैंने शुरू में बताया, एक होनहार पत्रकार होने की पूरी गुंजाइश मुझसे मौजूद थी, बीए की अपनी क्लास का सबसे होनहार विद्यार्थी था मैं । बहुत जल्दी इस नतीजे पर भी कूद चुका था मैं कि साथ पढ़ने वालों की को छोड़िये पढ़ाने वालों से भी ज़्यादा होशियार हूं। इससे जो बदतमीज़ी, जुबानदराजी और घमंड मेरे अंदर पैदा हुआ वो आने वाले वक्त में मेरे एक होनहार पत्रकार हो जाने की तस्दीक़ करती थी । उन दिनों मैं मान चुका था कि मुझे सब कुछ आता है । पढ़ने लिखने की ज़रूरत थी नहीं मुझे। ऐसे में दूसरों की टांग खींचना, बेमतलब बाते जानने की कोशिश करना, उन्हें मर्ज़ी मुताबिक़ नमक मिर्च लगाकर इधर से बात उधर करना, लोगों को नीचा दिखाना, उलझा कर आपस मे लड़वा देना, पंचायतें और ठलुआई करना इन सारी विधाओं का मास्टर था मैं । किसी भी विषय को लेकर, किसी का भी दिमाग़ खा लेने में माहिर भी था। ज़ाहिर है मेरी ये सारी योग्यताएं मुझे एक कामयाब पत्रकार बनाने के लिये काफ़ी थी ।
पढ़ा तो था ही मैं, लिख भी ठीक ठीक लेता था, मर खप कर पास की गई बॉयोलाजी की दसवीं क्लास से आगे बढ़कर आत्मविश्वास से भरा बीए का टॉपर था । यदि इन सारी काबिलियतों के बाद भी यदि मैं पत्रकार ना बनता, तो कौन बनता ।
पर जैसा कि रफ़ूचक्कर फ़िल्म में ऋषि कपूर बता गये है कि , किसी पर दिल आने से कुछ नहीं होता । वही होता है जो मंज़ूर ए ख़ुदा होता है । मेरे मामले मे भी खुदा को कुछ और मंज़ूर था । उसने मुझे आबकारी वालों के हवाले किया और इस तरह देश ने एक होनहार पत्रकार को खो दिया । मैं भले ना हो सका पर दसवीं पास फ़ेल सारे ही पत्रकारों से भाईचारा महसूस करता हूं मैं । वे वो करें जो मैं नहीं कर सका । वे हमेशा खुश रहे और इसी तरह देश का नाम रोशन करते रहें ।