आस्था

मैं गैलरी मैं खड़ी थी अचानक मेरी नजर नीचे गई । सड़क पर दो लड़कियां जा रही थी। छोटी लड़की रोती हुई जा रही थी और बड़ी लड़की उसे समझाती हुई हाथ पकड़ कर ले जा रही थी। आज नवरात्रि का आखरी दिन है नवमी की पूजा में कन्या भोज के लिए दोनों लड़कियां जा रही थी। शायद छोटी लड़की को किसी के यहां खाना पसंद नहीं है इसलिए वह रो रही है और उसकी बहन उसको मना कर ले जा रही थी यह देख कर मुझे अपने बचपन की याद आ गई।
हम लोग बड़वानी मैं रहते थे। मैं दूसरी तीसरी में पढ़ती थी। मेरी मां भी मेरे स्कूल में पढ़ाती थी। हमारे स्कूल के प्रिंसिपल नवरात्रि के सप्तमी के दिन हमारे यहां आए और मुझे नवमी के दिन के लिए भोजन का निमंत्रण दे गए। वे लोग उत्तर प्रदेश के थे और दुर्गा पूजन का उनके यहां बहुत महत्व था। प्रिंसिपल साहब तो चले गए किंतु उनके यहां भोजन के लिए जाना यह सुनकर ही मैं तो बहुत डर गई क्योंकि हमारी प्रिंसिपल की पत्नी मेरी क्लास टीचर थी। हमारे जमाने में बच्चे अपने टीचरों से डरते थे यही हाल मेरा भी था। हमारी टीचर बच्चों की जमकर धुलाई करती थी। क्लास में कोई भी शैतानी करता तो सजा पूरी क्लास को मिलती थी। हमारे हाथ पैरों पर पतले डंडे के कई निशान हमेशा रहते थे। एक तो हमारे प्रिंसिपल साहब और दूसरे क्लास टीचर के घर जाना और वहां खाना खाना यह छोटे बच्चे के लिए बहुत डरावना काम था।
प्रिंसिपल साहब के जाने के बाद मैंने अपनी मां से प्रिंसिपल साहब के यहां जाने लिए साफ मना कर दिया किंतु मां के लिए प्रिंसिपल साहब को मना करना असंभव था क्योंकि वह हमारी मां के साहब थे। मां को मेरे ना जाने का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था। नवमी का दिन आया और सुबह से मैं भोजन पर ना जाने के लिए रो रही थी और मां मेरे लिए कोई सहानुभूति नहीं रख रही थी। सुबह उन्होने अपने हाथ से नहलाया, नहलाते वक्त जब मेरे हाथ पांव पर मार के निशान देखते हुए मुझे बुरी तरह से डांट रही थी। मेरे बार बार कहने पर कि मैडम बिना कारण मारती है, गलती किसी की भी हो सजा पूरी क्लास को देती है और हंसने पर तो उन्हे बहुत ही नफरत है, मां मेरी बात से नाराज होते हुए बोली कि क्या मैडम पागल है जो बिना किसी कारण के मारेगी, तुम मस्ती करोगी तो मार तो पड़ेगी।
12 बजे मां ने मुझे तैयार कर के हमारी कामवाली के साथ प्रिंसिपल साहब के यहां जाने के लिए रवाना किया। मैं रास्ते भर रोती जा रही थी । किंतु बाई भी कड़क थी। उसने मेरा हाथ नहीं छोड़ा और सीधे प्रिंसिपल साहब के यहां ले गई। प्रिंसिपल साहब का घर बहुत सुंदर था आगे बड़ा सा बगीचा और फिर एक बड़ा पोर्च था। उसके बाद अंदर एक बड़ा हाल था। प्रिंसिपल साहब के साथ उनके मां पिताजी भी रहते थे। प्रिंसिपल साहब के यहां और भी बहुत सारी लड़कियां आई थी। उनको लकड़ी के पटिए पर बिठाकर हमारी मैडम उनके पैर धोकर अलता लगा रही थी । जैसे ही मैं वहां पहुंची उनकी सास ने बाहर आकर मेरा हाथ पकड़ कर अंदर पटिए पर बिठा दिया और मेरे पैर धोने लगी।
मेरे पैर हाथ जिस पर छड़ी के हरे हरे निशान थे देख कर बोली किसने इतनी छोटी मासूम बच्ची को इतनी बेरहमी से पीटा, कीड़े पड़े उसको और वह मेरे हाथ पैर धोती जा रही। साथ में मारने वाले को जमकर कोस रही थी। मैं अपने मैडम का चेहरा देख रही थी जो क्रोध में लाल हो रहा था। उनकी सास ने मेरे पैरों पर हल्दी और अलता लगाया । उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे अंदर ले जाकर एक बड़े पाट पर बिठाया मुझे तिलक लगाकर सुंदर सा मुकुट पहनाया और सुंदर सी ओढ़नी भी पहनाई। मैडम अन्य लड़कियों को पूजा करके आसन पर बिठा रही थी। उनकी सास ने मेरी पूजा की और मेरी आरती उतारी। उनकी आंखों में अनोखी चमक थी। मैं थी तो बहुत छोटी किंतु उनका उत्साहित चेहरा देखकर मैं बहुत डर रही थी। उन्होंने मेरे पैर में कंकु लगा कर पूरे घर में घुमाया। मानो घर में लक्ष्मी की अगवानी कर रही हो। यह वाकिया मेरे को बहुत अजीब लग रहा था। मुझे लग रहा था कि कब यहां से चली जाऊं। माताजी ने मुझे एक बड़े पाट पर बिठाया और उसके आगे एक और पाट रखा और उस पर एक चांदी की थाली। थाली में विविध प्रकार के व्यंजन थे, मेरे सामने रखें। मेरे साथ अन्य लड़कियों की भी थाली लगाई गई। हमारा खाना लगते ही घर के सब लोग सामने आकर बैठ गए। उनके आते ही मेरी तो सांस ही रुक गई। प्रिंसिपल साहब की माता जी ने मुझे खाना खाने के लिए बोला किंतु सामने बैठी हुई अपनी टीचर को देखकर तो मैं खाना खाने का सोच भी नहीं सकती थी। जब मैंने खाना शुरू नहीं किया तो माताजी ने मुझे अपने हाथ से खिलाना शुरू कर दिया। मैंने बड़ी मुश्किल से दो पूरी खाई और फिर मना कर दिया। खाना खत्म होते ही माताजी ने मेरे हाथ धुलवाऐ और अपने पल्ले से उन्हें पोछा। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि वह साक्षात दुर्गा मां की सेवा कर रही हो और मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं कब उनसे पीछा छुड़ाकर चली जाऊं। खाने के बाद उन्होंने मेरे हाथ पोछ कर उस पर एक चमचमाता चांदी का सिक्का रख दिया। सिक्के को देखकर ऐसा लग रहा था कि अभी टकसाल से ही निकाल कर लाए हैं । प्रिंसिपल साहब मुझे मेरे घर तक छोड़ गए। उनके जाने के बाद मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं किसी जेल से छूट कर आई हूं। घर आकर मुझे नॉर्मल होने में बहुत वक्त लगा। घर आने पर सब मुझसे प्रिंसिपल साहब के वहां क्या हुआ पूरी बाते पुछ रह थे किन्तु मैं उस नाटकीय माहौल से अपने को आजाद नहीं कर पा रही थी। मुझे वह घटना जब याद आई तो मैं समझ रही थी कि हम अपनी आस्था व भावना जब छोटे बच्चों पर थोपते हैं तो वह बच्चा कितना भयभीत वह बेबस होता है। हम उसे भगवान समझकर पूजते हैं किंतु मासूम बच्चों की भावना उनकी मासूमियत को नजरअंदाज कर देते हैं, जिससे वह आहत होता है।


लेखिका – प्रभा शर्मा

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