जो मुद्दे निकलकर आए उससे म.प्र. में कांग्रेस की स्थिति लग रही मजबूत, मिल सकता है पूर्ण बहुमत

मुनीष शर्मा, विहान हिंदुस्तान न्यूज

म.प्र. विधानसभा चुनाव के लिए 17 नवंबर को मतदान तो हो गया लेकिन नतीजे 3 दिसंबर को आएंगे। इस चुनाव में मतदान तक तो जनता चुप रही लेकिन मतदान के बाद अब धीरे-धीरे राज खुलने लगे हैं। मतदाताओं की तरफ से जो रूझान आते दिख रहे हैं वह कांग्रेस के पूर्ण बहुमत की तरफ इशारा तो कर रहे हैं हालांकि भाजपा अपनी पार्टी के फिर से सरकार में रिपीट होने की बात पर जोर दे रही है। 3 दिसंबर को शाम तक स्पष्ट हो जाएगा म.प्र. में अबकी बार किसकी सरकार? वैसे 30 नवंबर को ही कई मीडिया संस्थान एग्जिट पोल दे देंगे जिससे कुछ रूझान समझ आएगा। ( कृपया इस लेख की अंतिम लाइने भी पढ़े)

साल 2003 से म.प्र. में भाजपा सत्ता में है हालांकि 2018 के चुनाव में उसे शिकस्त तो मिली थी लेकिन डेढ़ साल के अंदर ही उसने फिर से सरकार बना ली थी। कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव में जीत के बाद भी विपक्ष में ही बनी रही। इस बार जो विधानसभा चुनाव हुए उसे लेकर मतदाता काफी खामोश रहे जिससे कांग्रेस और भाजपा दोनों ही मुश्किलों में देखे गए। तीसरी पार्टी के रूप में आम आदमी पार्टी आई तो सही लेकिन उसने अपने प्रचार को मानों जानबूझकर रोक लिया। कहा तो जा रहा है गुजरात चुनाव को देखते हुए कांग्रेस और आप पार्टी का अघोषित तालमेल रहा ताकि भाजपा को सत्ता से आऊट किया जा सके। म.प्र. विधानसभा चुनावों में जो मुद्दे इस बार गर्माये हैं उसे अलग-अलग तरीके से देखा जा रहा है जिसमें भाजपा सरकार द्वारा किए गए विकास कार्य हैं तो भ्रष्टाचार का चरम भी एक बिंदु है। लाड़ली बहना को दी जाने वाली सौगात है तो टैक्स पेयर्स का भी अपना आक्रोश है। टैक्स पेयर्स के अलावा काम देने वाले लोगों की भी परेशानी है जिन्हें खेत से लेकर फैक्टरी में काम करने वाले नहीं मिल रहे या मजदूर अथवा कर्मचारी अपने हिसाब से नौकरी करना चाहते हैं। सरकारी कर्मचारियों ने अपनी सुविधा देखी तो सरकार द्वारा नौकरी के नाम पर प्राइवेट कंपनियों को दी जा रही खैरात से बेरोजगार निराश दिखें। प्रतियोगी परीक्षाओं में घोटालों के सैलाब ने भी इस वर्ग के मतदाताओं को वोट देते समय टच किया। कुछ अफसरों के रसूख ने ठेकेदारों के साथ विभागों के कर्मचारियों को भी फिर शिवराज… की बात पर सोचने को मजबूर कर दिया। …लेकिन ऐसे भी कई मतदाता रहे जो भाजपा नहीं तो कौन…और फिर वहीं कांग्रेस जैसी बातों से आहत दिखे। मुस्लिम व ईसाई समुदाय की बात करें तो इन समुदायों के अधिकांश लोग भाजपा से दूरी बनाना ही पसंद करते दिखे जो कई सीटों पर अपना महत्व रखते हैं।

फिर से भाजपा के आसार कितने….

भाजपा कार्यकर्ता या इस पार्टी को पसंद करने वालों का कहना है कि साल 2003 में जब भाजपा सत्ता में आई थी तब प्रदेश की हालत क्या थी? गड्डों वाली सड़के, बिजली की कमी, घोटालों की भरमार, सही समय पर प्रतियोगी परीक्षाएं नहीं होना, आमजन के लिए सरकारी योजनाएं नहीं होना, लोक परिवहन के साधनों की खस्ता हालत आदि कांग्रेस के समय थे। भाजपा को ठीक करते-करते समय लग गया। भाजपा के विकास मॉडल को लोगों ने इस बार भी पसंद तो किया लेकिन बार-बार एक ही बात पर वोट देने वालों की संख्या धीरे-धीरे कम होती दिखती है। कुल मिलाकर इन लोगों का मानना है सरकार है तो उसे विकास तो करना ही होगा। लाड़ली बहना को मास्टर स्ट्रोक कहने की बात पर भी बहस होती दिख रही है। वोट प्रतिशत बढ़ने की बात पर पूरा श्रेय लाड़ली बहना को नहीं दिया जा रहा है। कहा तो यह भी जा रहा है इस बार वोट डालने के लिए लाइन में वे महिलाएं भी लगी देखी गई जो इस लाड़ली बहना योजना की पात्र नहीं थी लेकिन इस योजना के चलते वे अपने रोजमर्रा के कार्य में प्रभावित होती है। ये वे महिलाएं हैं जो घर या कार्यालय में काम पर उन महिलाओं से काम कराती हैं जिन्हें लाड़ली बहना का लाभ मिल रहा है। सवाल ये उठता है कि इन महिलाओं को लाड़ली बहना योजना से क्या दिक्कत है? इसका जवाब यह​ दिया जा रहा है कि सरकार उनके टैक्स के पैसों का गलत उपयोग करते हुए कामकाजी लोगों को ‘फ्री का नशा’ दे रही है। ऐसे में लाड़ली बहना स्कीम की पात्र ये कामकाजी महिलाएं (सभी नहीं) अपने काम पर अनुशासनहीनता दिखाती है। बात यह भी उठती है कि कांग्रेस भी इसी तरह की स्कीम में पैसा बांटेगी तो नाराज लोगों का कहना है राजस्थान जैसा ही म.प्र. में चलेगा यानी सरकार में राजनीतिक पार्टियां बदलती रहे। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि लाड़ली बहना भी अपना वोट भाजपा को ही दे चुकी है यह क्या गारंटी है क्योंकि कांग्रेस भी महिलाओं के लिए 1500 रु. महीना देने का वादा कर चुकी है। म.प्र. सरकार की सीखों कमाओ योजना भी भाजपा के सत्ता में वापसी को लेकर बहुत असर नहीं दिखाती दिख रही है। कुल मिलाकर भाजपा के फिर से सत्ता में आने के आसार तब बन सकते हैं जब लाड़ली बहना का वोट तो सीधे-सीधे उसके खाते में ही पड़ा हो और उसके विकास कार्यों से जनता संतुष्ट हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार के कार्यों खासकर देश की सुरक्षा और विदेश नीति को लेकर भी जब मतदाता सोचता है तो उसे विपक्ष के बदले भाजपा ही बेहतर लगती है। वैसे कई लोग महंगाई व टैक्स को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ बात करते हुए भी दिखते हैं।

किसे शिवराज सरकार से क्या दिक्कत…

-कई लोगों का मानना है कि मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराजसिंह चौहान को देखते-देखते उब गए हैं, कुछ बदलाव होना चाहिए। भाजपा में ही गुटबाजी का यह असर रहा कि कई जनप्रतिनिधि भी काम करा नहीं पाते थे जिसमें कैबिनेट मंत्री जैसे भी चेहरे थे। बताते हैं एक जिला पंचायत सीईओ को हटाने के लिए दो मंत्रियों, 6 विधायकों ने पत्र तक लिखा लेकिन जब तक अफसर ने चाहा तब तक पद पर बने रहे। ऐसे एक नहीं कई मामले देखे गए जिसका असर सरकार की छवि पर पड़ा।

-सरकारी कर्मचारियों ने बड़ी संख्या में भाजपा को वोट देने से गुरैज किया। कारण कांग्रेस की ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) का आकर्षण उनमें व उनके परिवार में देखा गया। मतदान सामग्री लेने गए कई कर्मचारी जय ओपीएस कहते सुने गए।

-किसानों की नाराजगी खाद नहीं मिलने के साथ उनकी फसल का सही दाम नहीं मिलना है। इसके अलावा मौसम के कारण फसल खराब होने पर मुआवजा की राशि को लेकर भी ये व्यथित दिखे।

-प्रतियोगी परीक्षाएं देने वाले स्टूडेंट्स की नाराजगी सही समय पर पीएससी व अन्य भर्ती परीक्षाएं न होना है। इसके अलावा भर्ती परीक्षाओं में भ्रष्टाचार का मुद्दा सबसे गंभीर रहा जिसकी शुरुआत व्यापमं घोटाले से शुरू होकर चुनाव के कुछ पहले हुए पटवारी घोटाले पर आकर रूकती है।

– सरकार आउटसोर्सिंग पर कर्मचारियों को जो नियुक्ति देती है उससे भी काफी नाराजगी है। इससे उन कंपनियों को सीधे-सीधे फायदा होता है जो कर्मचारी को सरकारी विभाग में काम देते हैं। कर्मचारी की नाराजगी यह देखी गई कि उसे काम तो पूरा करना होता है जैसे ऑफिस के उसके अन्य समकक्ष पद के कर्मचारी करते हैं लेकिन जब वेतन मिलने की बात आती है तो उससे काफी कम मिलता है। एक विभाग में प्यून के पद की बात करें तो स्थायी को 15000 रु. से ज्यादा मिलते हैं जबकि आउटसोर्सिंग वाले को करीब 9000 मिलते हैं। यह बात अलग है कि सरकार उस कंपनी को तो 14000 रु. देती है जिसने इस कर्मचारी को काम पर भेजा। विशेष बात तो यह है कि पीएफ-इंश्योरेंस कटने के बाद 18 प्रतिशत जीएसटी भी कटता है और कंपनी के खाते में भी मेहनताना जाता है। इस आउटसोर्सिंग की योजना में बड़े खेल भी होते दिखते हैं लेकिन कोई देखने वाला नहीं जिसके कारण आउटसोर्स किये गए कर्मचारी मजबूरी में काम करते देखे गए।

– कुछ अफसर भी भाजपा सरकार से काफी नाराज देखे गए जिसके पीछे भी कई कारण हैं। कुछ अफसरों की सरकार पर इतनी पकड़ बन गई थी कि वे अपने वरिष्ठों को तो पथ नहीं करते थे साथ ही वे भाजपा के कई कार्यकर्ताओं को पद और यहां तक की चुनावों में उम्मीदवारी तक दिलाने की क्षमता रखने लगे थे। जिन अफसरों की सरकार पर पकड़ रही उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार भी चरम पर पहुंचना बताया गया क्योंकि शिकायत होने पर भी संबंधित के खिलाफ कोई जांच नहीं होती थी या उसकी फाइल दबा दी जाती थी। यह भी एक कारण रहा जिसके चलते सरकारी कर्मचारी जो इनके मातहत थे वे नाराज दिखे। यदि मुख्य सचिव के पद को ही देखें तो इकबालसिंह बैस को रिटायर होने के एक साल बाद तक पद पर रखा गया जिससे इस पद पर बैठने वाले अन्य योग्य अफसरों की अवहेलना होना माना गया।

-व्यापारी वर्ग की परेशानी टैक्स की बढ़ोतरी तो है ही लेकिन उससे ज्यादा कई क्षेत्रों में गुंडागिर्दी भी रही।

(नोट :- इतने मामले होने के बाद भी कांग्रेस की लहर नहीं देखी जा रही है क्योंकि लोगों का भाजपा से नाराज होना बड़ा पाइंट है न कि कांग्रेस पर उनका विश्वास जताना है। नाराज मतदाता भाजपा के आलाकमान को राज्य की स्थिति से अवगत कराना चाहते हैं ताकि आगे से वे इन कमियों पर ध्यान दें।)

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