मित्र
विहान हिंदुस्तान न्यूज ( निधि परमार के विचार)
आज मित्रता दिवस है। सबके अपने-अपने मित्र हैं। सब उन मित्रों पर अपना जीवन न्यौछावर करने को तत्पर रहते है। मित्र सुख-दुख का परम साथी होता है। कभी-कभी सगे भाई-बहनों से भी ज्यादा, मित्र को खास होना भी चाहिये…। मित्र का भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में होना अत्यंत ही आवश्यक है। बचपन में संग खेलने से लेकर बड़े होने पर जीवन यापन में उतार-चढ़ाव आने पर दृढ़ता से पारिवारिक सदस्यों के संग उन्हीं की भांति मित्र भी संग खड़ा रहता है। प्रत्येक सुख-दुख का साथी मित्र होता है पर आजकल मित्रता का अर्थ थोड़ा बदल रहा है। आजकल कोई भी मित्र बन जाता है, किसी को भी मित्र मान लिया जाता है। गलत काम सिखाने वाला दोस्त है और सही बताने वाला दुश्मन। व्यक्ति भटक रहा है.. आबलम्बन पाने के लिये। समाज में झूठा मान बढ़ाने के लिये तथाकथित मित्रों की फौज दिखा रहा है। मोबाइल फोन, फेसबुक, ढेर सारे मित्रों से भरे पड़े हैं। पार्टियां हो रही है पर क्या केवल पार्टी मौजमस्ती घूमने फिरने तक ही मित्रता सीमित रह गई है।
क्या साथ में पार्टी करने वाले, मौज मस्ती, जश्न करने वाले सभी व्यक्ति मित्र हो सकते है ?… नहीं। इसे पहचान तो कह सकते है लेकिन मित्रता नहीं। तो फिर मित्र किसे कहेंगे और मित्रता क्या है?
हम सब संसार में एक जीवन यात्रा कर रहे हैं। इस यात्रा का वास्तविक उद्देश्य जो बता सके वह मित्र है। जीवन यात्रा में होने वाले पापों से बचा सके वह मित्र है। जो आध्यात्मिक उन्नति में निरंतर साथ हो वह मित्र है न कि उसे मित्र कहेंगे जो सांसारिक मोह जाल को बढ़ावा दे।
मित्र दो शब्दों से मिलकर बना है.. मन और अन्यंत्र अर्थात जिसके बिना मन कहीं न लगे और जो मन को भटकने न दें उसे मित्र कहेंगे।
तो फिर ऐसे मित्र तो केवल ईश्वर हो सकतें है और ऐसे मित्र बनकर ईश्वर ने दो बार अवतार भी लिया है राम और कृष्ण के रूप में। भगवान श्री राम सुग्रीव के मित्र बने, निषाद राज के मित्र बने और दोनो को ही भवसागर पार करा दिया।
कृष्ण मित्र बने अर्जुन और सुदामा के। अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर मोहरूपी अंधकार को हटा दिया। सुदामा को समस्त ब्रम्हाण्ड का सुख प्रदान कर दिया।
रामचरित मानस के किष्किन्धा काण्ड में भगवान राम सुग्रीव को मित्र कैसा होना चाहिये यह बताते हैं..
*कुपंथ निवारी सुपंथ चलावा*
*गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा*
और कौन सा मित्र त्यागने योग्य है, श्री राम जी सुग्रीव से कहते है ..
*आगे कह मृदुवचन बनाई*
*पाछे अनहित मन कुटिलाई।*
*आके चित अहि गति सम भाई*
*अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।।*
तो फिर क्यों न परम पिता परमात्मा को ही मित्र बनाया जायें जो ईहलोक और परलोक दोनों को ही संभाल लें, या फिर ऐसे व्यक्ति को जो आध्यत्मिक रास्ते पर चलने के लिये प्रेरित कर सकें। ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में आने वाले भटकाव से वापस सही राह पर ला सकें। वह व्यक्ति तो केवल गुरू हो सकतें है, तो चलिये गुरू को मित्र बनाइयें या फिर ऐसे किसी को मित्र बनाइये जो निरंतर आपको ईश्वर प्राप्ति की राह दिखा सके।
मित्र बनाते समय अत्यंत सावधानी रखे क्योंकि मित्र जीवन को सार्थक भी बन सकता है और मित्र जन्म जन्मांतरो तक जीवन बिगाड़ भी सकता है ।