गुरुद्वारा पत्थर साहब : गुरु नानक देव जी से टकराते ही पत्थर का मोम बन जाना
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लद्दाख क्षेत्र में स्थित लेह शहर से मात्र 25 किलोमीटर दूर गुरुद्वारा पत्थर साहब स्थित है । यह एक बेहद दिलचस्प और धार्मिक टूरिस्ट स्पॉट है । दिलचस्प इसलिए है क्योंकि इस जगह गुरु नानक देव जी की आकृति पत्थर पर बनी हुई है । इससे जुड़ी यही कहानी सुनकर न सिर्फ़ आश्चर्य होता है बल्कि वास्तविक रूप में पत्थर पर गुरु नानक देव जी की आकृति देखकर मन में रोमांच भर जाता है । श्रीनगर से लेह के बीच स्थित इस गुरुद्वारे में हर साल हज़ारों श्रद्धालु आते हैं ।
बताया जाता है कि श्री गुरु नानक देव जी ने 1715 में सुमेर पर्वत पर अपना उपदेश दिया था । इसके बाद वे नेपाल के रास्ते सिक्किम और तिब्बत होते हुए लेह पहुंचे थे । जब वे लेह पहुँचे तो वहाँ के स्थानीय नागरिकों ने उन्हें अपनी पीने के पानी की समस्या बतायी और कहा कि यहां समीप ही नदी है अत: पीने का पानी तो है किंतु समीप की पहाड़ी पर रहने वाला राक्षस उन्हें उस नदी से पानी नहीं भरने देता और उन्हें मारकर खा जाता है । जब गुरु नानक देव जी को इस बात का पता चला तो उन्होंने उसी नदी किनारे अपना आसन लगा लिया और तपस्या शुरू कर दी । राक्षस यह देखकर बहुत नाराज़ हो गया । पहले उसने कई जतन किए । तरह-तरह से डराकर गुरु नानक देव जी की तपस्या भंग करने की कोशिश की किंतु जब वह उसमें सफल नहीं हुआ तो उसने गुरु नानक देव जी की हत्या करने की ठान ली । उसने पहाड़ी पर रखा एक बहुत बड़ा पत्थर उठाया और उसे गुरु नानक देव जी की तरफ़ लुढ़का दिया । राक्षस ने सोचा की इस विशाल पत्थर के नीचे दबकर यह संत मर जाएंगे । जैसे ही पत्थर ने गुरुनानक देव जी के शरीर को छुआ वह पत्थर मोम बन गया और गुरू नानक देव जी की आकृति लेकर वही स्थिर हो गया ।जब राक्षस को थोड़ी देर बाद लगा कि अब गुरु नानक देव जी का ख़ात्मा तय है, तब वह पहाड़ी से नीचे उतरा, किन्तु वह यह देखकर आश्चर्य चकित हो गया कि गुरु नानक देव जी अभी भी अपनी तपस्या में लीन हैं एवं वह विशाल पत्थर भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया । तब राक्षस ने अत्यंत ग़ुस्से में अपने पैर से उस पत्थर को दबाकर गुरु नानक देव जी को मारना चाहा । किन्तु जैसे ही राक्षस ने पत्थर में अपना पैर दबाया, उसका पैर भी उस पत्थर में गड़ गया क्योंकि वह पत्थर अब मोम का हो चुका था । यह चमत्कार देख राक्षस को अपनी भूल का एहसास हुआ एवं वह गुरु नानक जी के चरणों में गिर पड़ा एवं उनसे माफ़ी मांगी और उनका शिष्य बन गया । वह पत्थर आज भी वहां स्थित है उसमें न सिर्फ़ गुरु नानक देव जी के शरीर की आकृति बनी है बल्कि उस राक्षस के पैरों के निशान भी स्थित है । उस पत्थर का आकार इतना बड़ा है कि कोई भी सामान्य व्यक्ति सहज ही उसमें दबकर मर सकता है । इसी कारण इस गुरुद्वारे का नाम पत्थर साहिब पड़ा । इस चमत्कारिक आकृति के कारण ही यह गुरुद्वारा पत्थर साहब पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है ।
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इस पत्थर के मिलने एवं गुरुद्वारे कि स्थापना की कहानी भी कम रोचक नहीं है । दरअसल सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण इस स्थान पर भारतीय सेना का ज़्यादा वर्चस्व है अतः यह गुरुद्वारा भी भारतीय सेना के ही आधिपत्य में हैं । भारतीय सेना के जवान एवं अफ़सर लगातार इस गुरुद्वारे में अपनी सेवाएं देते हैं । यहां लंगर भी 24 घंटे छका जा सकता है । सेना का बीआरओ विभाग यहां सड़क निर्माण का कार्य करता है । अत: इस गुरुद्वारे की स्थापना की कहानी भी कम रोचक नहीं है । दरअसल जब लेह से श्रीनगर तक की सड़क का निर्माण शुरू हुआ तो सबसे पहले यह सड़क लेह से निकटवर्ती शहर निमू तक बनने वाली थी । तब सेना के एक अधिकारी को सपने में बार-बार गुरु नानक देव जी ने दर्शन दिए और कहा कि मैं यहां एक पत्थर पर आकृति रूप में स्थित हूं। तब उस अफ़सर ने उस इलाक़े में बन रही सड़क का निर्माण कार्य और उसमें इस्तेमाल होने वाले पत्थरों का अवलोकन किया । कुछ खुदाई करने पर उन्हें यहां यही विशालकाय पत्थर, जिसमें गुरु नानक देव जी की आकृति उकरी हुई थी, वह मिला । तब उन्होंने उसे ससम्मान निकालकर वहीं स्थापित कर दिया । इस गुरुद्वारे का निर्माण भी न सिर्फ़ उसी जगह किया गया बल्कि वहां से निकलने वाली सीधी सड़क को थोड़ा सा मोड़ भी दे दिया गया । इन सभी बातों को आप उस स्थान पर जाकर प्रत्यक्ष रूप में देख सकते हैं ।
गुरुद्वारे की व्यवस्था पूर्णतः भारतीय सेना के हाथों में है । यहां गर्म चाय, कॉफी से लेकर सुस्वादु लंगर तक लगातार मिलता है । लंगर के बर्तन साफ़ करने के लिए गर्मा गर्म पानी माइनस 20 डिग्री की ठंड में बहुत राहत देता है । यह स्थान न सिर्फ़ भारतीय सेना के लिए बल्कि संपूर्ण सिख समाज के लिए बहुत गौरव का स्थान है ।समस्त श्रद्धालु इस जगह का आनंद लेते हैं । हम जब अपनी टीम के साथ चौथी बार यहां पहुंचे तो हमें एक और अच्छी बात इस गुरुद्वारे में देखने को मिली । इस गुरूद्वारे में जितने भी पैसे श्रद्धालुओं द्वारा चढ़ाए जाते हैं उनको गिनने के लिए स्वयं श्रद्धालुओं को ही इस कार्य में लगाया जाता है । हमारी पूरी टीम इस पुनीत कार्य का आनंद उठा चुकी हैं । हमने लगभग हर तरह के नोट को सौ-सौ के बंडल में अलग-अलग बांधकर गुरुद्वारा समिति के सदस्यों को सौंपा था । इस तरह का अद्भुत आनंद हमारी टीम ने पूरी ज़िंदगी और कहीं नहीं उठाया । जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल
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