जज साहब की आवाज सुनाई दी ‘स्टे टिल फरदर आर्डर’.. तब हमने चैन की सांस ली
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रिटायर्ड आएएस आनंद शर्मा की कलम से रविवारीय गपशप
‘सतसैय्या के दोहरे ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर’ प्रसिद्द कवि बिहारी के इस दोहे को भला किसने न सुना होगा, शायद इसलिए ही कभी शरद जोशी भी “नावक के तीर ” शीर्षक से अपने व्यंग्य लिखा करते थे। संक्षिप्त संवाद से अपना लोहा मनवाने में पीलू मोदी का नाम भी आता है जिनके संसद में वाक्चातुर्य के किस्से कभी हम पढ़ा करते थे लेकिन अदालतों की गंभीर कार्यवाहियों में भी इसका उपयोग हो सकता है ये मुझे बहुत दिनों बाद पता चला।
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उज्जैन में महाकाल दुर्घटना के पश्चात जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में एक जांच आयोग बना जिसमें सरकार की ओर से श्री शेखर भार्गव और महाकाल मंदिर की ओर से श्री आनंद मोहन माथुर पैरवी के लिए नियुक्त हुए। मैं मंदिर प्रशासक और एस.डी.एम. होने के नाते दोनों के संपर्क में रहता था। एक दिन जांच कार्यवाही के दौरान पुरातत्व विभाग के अधिकारी की गवाही होनी थी, नियत समय पर आयोग की बैठक प्रारम्भ हुई और उन महाशय ने अपनी गवाही में पूछे गए प्रश्नों के अलावा अपनी ओर से ऐसी बातें बयान करनी शुरू कीं जो प्रश्न का भाग नहीं था। महाशय कहने लगे कि मंदिर में निर्माण पुरातात्विक लिहाज से नहीं किये जा रहे हैं। ये दीवार यहां नहीं बननी चाहिए और ये फलां कमरा वहां नहीं बनाना था। मैं आश्चर्य चकित था क्योंकि यह विषय पूर्व नियत नहीं था। लगभग आधे घंटे के बयान के बाद मंदिर के प्रतिपरीक्षण का नंबर आया, माथुर साहब खड़े हुए और उन सज्जन से पूछा ” ये जो कुछ भी पुरातात्विक लिहाज से निर्माण का उल्लेख आपने किया है तो जरूर आप कोई पुरातात्विक विशेषज्ञ होंगे? किस पद पर हैं आप विभाग में ? उन सज्जन ने कहा जी नहीं मैं तो सिक्योरिटी अफसर हूं, माथुर साहब मुस्कुराये और बोले, “नो क्वेश्चन देन ” और बैठ गए। बिना विषय विशेषज्ञता के उनकी टिप्पणी का कोई सार ही नहीं था।
इसी तरह उज्जैन की ही एक और घटना है, जहां आज महाकाल पुलिस चौकी है। वहां पहले एक प्याऊ हुआ करती थी। प्याऊ का उपयोग तो बहुत कम हुआ करता था अलबत्ता उसकी आड़ में यात्रीगणो में कुछ दुष्ट लघु और दीर्घ शंका जरूर कर जाया करते चूंकि वो मंदिर के प्रवेश के ठीक बराबर में थी तो ऐसी अवस्था में दुर्गन्ध और इस अव्यवस्था की शिकायत अक्सर हुआ करती थी। इस परेशानी को दूर करने को यह तय किया गया की उसे वहां से हटा कहीं और शिफ्ट किया जावे और उसकी जगह पुलिस चौकी बना दी जावे। शीघ्र ही इस निर्णय पर अमल भी कर दिया गया पर इस शीघ्रता में ये कमी रह गयी कि पुरानी प्याऊ जिस दानदाता ने बनवाई थी उनसे अनुमति नहीं ली गयी और इस बात को उन्होंने अन्यथा ले लिया और हाईकोर्ट में इसकी एक याचिका लगा दी । दुर्भाग्यवश इसी दौरान मेरे पिता के देहावसान के कारण मैं छुट्टी पर गया था इस वजह से मैं कोर्ट में हाजिर न हो पाया और मंदिर का पक्ष सही प्रकार से न रख पाने के कारण न्यायालय ने ये आदेश दे दिया कि दानदाता जहां चाहे वहां मंदिर की ओर से प्याऊ बनवा के दी जाये और उसका खर्चा प्रशासक की तनख़्वाह से वसूला जाये। ये कुछ ज्यादा ही मेहरबानी हो गयी थी कि दानदाता को ये अधिकार भी दे दिया गया था कि जहां वो कहे वहीं नई प्याऊ बनवाई जायेगी। हमने अपील करने का निश्चय किया। उन दिनों उच्च न्यायालय की इंदौर खंडपीठ में श्री बशीर अहमद खान साहब प्रशासनिक जज हुआ करते थे जो बड़े सख़्त, जहीन और प्रसिद्द जज थे। नगर निगम की ओर से हमारे अधिवक्ता होते थे श्री विजयवर्गीय जो मंदिर की ओर से भी नियुक्त किये गए पर ये मामला कुछ विशेष था तो हमने किसी सीनियर को नियुक्त करना भी उचित समझा। विजयवर्गीय जी के साथ मैं सीनियर अधिवक्ता श्री पावेचा साहब के पास गया और इन्हें केस की पूरी सूरत बयान की तो वे हंस कर बोले, कोई बात नहीं आप निश्चिन्त रहो। नियत तारीख में हम अदालत में हाजिर हुए। खान साहब की डीबी में केस लगा था। केस का नंबर आया और खान साब ने फाइल खोली और बोले हां बताइये क्या मामला है? वकील साहब ने कहा कुछ नहीं माय लार्ड पिछले हफ्ते न्यायालय परिसर में जो वाटर कूलर का आपने उदघाटन किया है उसे अब वहां से कभी हटाया नहीं जा सकेगा । क्या बकवास है, ये क्या बात हुई ? खान साहब झुंझलाकर बोले। पावेचा जी बोले जी बस ऐसा ही कुछ महाकाल मंदिर की इस प्याऊ का मामला है। और बस कुछ ही क्षणों में फाइल देखने के बाद जज साहब की आवाज सुनाई दी ‘स्टे टिल फरदर आर्डर।’ हमने संतोष की सांस ली और पूरी सुनवाई के बाद आखिर अदालत ने ये फैसला दिया कि दान के बाद दानदाता का दान की गयी सम्पत्ति में कोई दखल नहीं रह जाता बल्कि वो दानग्रहिता यानी मंदिर की हो जाती है।