किसी मरते हुए आदमी की जेब काटते हुए भी आत्मा गंवारा नहीं करती


मुकेश नेमा की कलम से
सौ फ़ीसदी भरोसा करता हूं शशिकांत त्रिवेदी की कही इस बात पर कि हम उन्हीं ठगों की संतानें हैं जो आम ज़िंदगी में बेहद शिष्ट, मिलनसार और खुशमिजाज लोग थे पर राह चलते निर्दोष राहगीरों को लूट कर मार डालना धर्म समझते थे। इनके चेहरे, हाव-भाव ,इनकी मिलनसारिता ,इनका स्वभाव , बातें बिल्कुल वैसी ही थी जैसी दूसरों की । ऐसे में इन्हें अलग से पहचानना नामुमकिन जैसा ही था । उन्नीस और बीसवीं शताब्दी में पूरे देश में जगह जगह, हज़ारों लाखों की तादाद में मौजूद ये ठग काली के भक्त थे। ये भद्र और व्यवहार कुशल लोग साल के कुछ तय दिनों में अपने घर से बाहर निकलते थे । सफ़र करते मुसाफ़िरों के साथ हो लेते थे , उनका भरोसा जीतते थे और मौक़ा मिलते ही उन्हें जान से मार कर उनका सारा माल असबाब छीन लेते थे। और ऐसा करने के बाद उन्हें कोई ग्लानि या पश्चाताप होता हो ऐसा भी नहीं था, ऐसा इसलिये नहीं था क्योंकि वो अत्यन्त धर्म परायण लोग थे। वे मानते थे ऐसा करने के लिये वो देवी द्वारा आदेशित हैं।
यही ठग पुरखे थे हमारे । हमें अपने डीएनए उन्हीं से मिले है और यही वजह है कि हम जैसे दो मुँहे लोग पूरी दुनिया में और कही नहीं। हम बस अपना सोचते है। और अपने छोटे फ़ायदे के लिये किसी का कुछ भी बड़ा नुक़सान कर सकते हैं। हम सत्य, अहिंसा , नैतिकता और त्याग की बड़ी बड़ी बातें करने वाले वो लोग हैं जिन्हें मुश्किल दिनों में किसी की भी मजबूरी का फ़ायदा उठाने मे कोई दुविधा नहीं होती।
दो चेहरे रखना स्वभाव ही है हमारा। ये प्रवृत्ति हमारे खून मे शामिल है। हम चाह कर भी इसे बदल नहीं सकते। ज़ाहिर है इसीलिये ऑक्सीजन की कालाबाज़ारी करने और नौ सौ के रेमडेसिविर इंजेक्शन को पैंतालीस हज़ार में बेचने में हमें रत्ती भर भी संकोच नहीं होता। किसी मरते आदमी की जेब काटने में हमारी आत्मा थोड़ी सी भी नही काँपती। हमारे कफनचोर पुरखे आज भी मौजूद है हमारे अंदर और कल हम भी उन की ही तरह मंदिरों के खुलते ही पूरी श्रद्धा से घंटे बजाते मिलेंगे ये तय है ।

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