पेड़ेवाले के पेड़े लाकर फंस गया कर्मचारी

Munish Sharma, Editor in Chief Vihan Hindustan

बात जिला पंचायत इंदौर की है। यहां एक कर्मचारी की पेड़े की दुकान थी जो यहां आने वाले साहब के समक्ष अपने यहां के पेड़े विशेष रूप से पेश करता था। जब एक बार नए साहब आए तो पहले ही उसके सहकर्मियों ने साहब से इस कर्मचारी का परिचय पेड़े की दुकान के हिसाब से करवाया। बात जब पेड़े की आई तो साहब भी जुबान के बड़े चट्टे थे। उन्होंने तुरंत ही कर्मचारी को कहा जाकर अपनी दुकान के पेड़े लेकर आओ। कर्मचारी जब अपनी दुकान पर पहुंचा तो पता चला पेड़े खत्म हो गए और बनने में देर लगेगी। उसने साहब को खुश करने के लिए खाली डिब्बा अपने यहां का लिया और पेड़े मारोठिया की पेड़ेवाले की नाम से प्रसिद्ध दुकान से खरीद लिए। साहब को जब ये पेड़े खिलाए गए तो उन्हें काफी अच्छे लगे। अब वे जब भी अपने मातहत से पेड़े बुलाते तो वहीं पेड़े (पेड़ेवाले के) लाने का कहते। चूंकि पेड़ेवाले से इस कर्मचारी को पहले पेड़े खरीदने होते थे और डिब्बा अपना लगाना होता था तो उसे हर बार ‘सदमा’ सा लगता था। वह साहब के पास जाने से बचने लग गया। हालांकि जब साहब का प्रमोशन हुआ और वे कलेक्टर बनकर अन्य जिले में गए तब उसे कुछ शांति मिली लेकिन यह शांति ज्यादा नहीं रही क्योंकि साहब कुछ समय बाद फिर इंदौर जो आ गए। लंबे समय तक यह सिलसिला चलता रहा और कर्मचारी के हितेषी मित्रों ने भी कभी साहब को यह नहीं बताया कि ये पेड़े खुद की दुकान के नहीं बल्कि खरीदकर लाता है।

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