राम सद्बुद्धि दाता
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अयोध्या से श्री राम जी का वनवास हो गया। राम, लक्ष्मण और सीता माता वन में पहुंच गए। उसके बाद भरत और शत्रुघ्न अयोध्या आए, वहां आकर उन्होंने जो माहौल देखा तो क्रोध से भर उठे। अपनी मां कैकेयी को दोषी मान कर स्वयं को पाप का भागीदार मानने लगे। उन्होंने दासी मंथरा जो कैकयी की दासी थी और श्री राम के वनवास में सहभागी थी, के साथ दुर्व्यवहार किया। फिर शत्रुघ्न ने मंथरा को लात मार कर प्रताड़ित किया।भरत स्वयं की माता कैकेयी पर क्रोध प्रकट कर अशिष्ट व्यवहार करने लगे। यह एक स्थिति थी।
दूसरी स्थिति यह बनी कि जब भरत जी, शत्रुघ्न जी, सभी माताओ, मंत्रीयो और समाजजनों के साथ चित्रकूट से रामचंद्र जी, लक्ष्मण जी, माता सीता को वापस अयोध्या लाने के लिए गए और वहां पर उनको विचार आने लगे कि मैंने व्यर्थ ही माता को दोष दिया ये तो मेरे भाग्य का ही दोष है। विधाता मेरा दुलार सह न सका उसने नीच माता के बहाने मेरे और स्वामी के बीच अंतर कर दिया। पर यह भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि स्वयं अपने आप को साधु कहने कौन पवित्र हो जाता है। माता नीच है ऐसा विचार मन में लाना भी बहुत बड़ा दुराचार है। यहां पर माता का कोई दोष नहीं है ये मेरे पापों का ही परिणाम है कि श्री राम मुझसे चौदह वर्षों के लिए भौतिक रूप से दूर हो रहे हैं। मैने अपनी माता को व्यर्थ ही कटु वचन कह कर दुखी करा है।
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रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने दोहा क्र. 260 के बाद की तीन चौपाई में इसका स्पष्ट वर्णन करा है।यहां पर समझने वाली बात है कि अयोध्या में जब भरत जी ने मां से दुर्व्यवहार करा था तब वहां पर राम जी नहीं थे वन में चले गए थे किन्तु चित्रकूट में भरत जी के साथ राम जी थे।
इससे यह समझ में आता है कि जहां राम जी बसते है वहां पर दुर्बुद्धि का नाश हो कर सद्बुद्धि आती है।
सदैव राम जी का स्मरण करते रहे तो कुमति का नाश होकर सुमति आती है।