सब चलता है वाली भावनाएं संचालित करती है हमें
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अद्भुत समाज है हम। बाज़ारों में धक्कामुक्की करती भीड़ लौट आई है । प्रफुल्लित और प्रसन्नचित्त लोग किसे अच्छे नहीं लगते, मैं भी खुश ही होता हूं दमकते चेहरे देख कर। पर मुझे लगता है हम सभी ऐसे लापरवाह समाज का हिस्सा है जिसके दिमाग़ से कुछ हफ़्ते पहले का डरावना मंजर मिट चुका है। ऐसा समाज जिसके सदस्यों को किसी और के साथ घटी किसी भी तरह की घटना, दुर्घटना बहुत देर तक विचलित नहीं करती। हम सीखने को अनिच्छुक लोग हैं । सब चलता है वाली भावना संचालित करती है हमें, इसीलिये हमारी बैचेनी, हमारी चिंतायें भी अल्पजीवी है। तभी तक है जब कुछ हम पर ही बीत जाये और फिर खुद पर बीतना भी प्रारब्ध है, पुराने जन्मों के पापों का निवारण है। ऐसे में हम ज़्यादा देर तक प्रतिरोध की मुद्रा में रह नहीं पाते , जो है ठीक है , कुछ नहीं हो सकता वाली मनःस्थिति हमें यथास्थिति से राज़ी बनाये रखती है । कुछ बेहतर सोचने, कुछ अच्छा कर जाने की उम्मीद लगाना भी खामख्याली है ।
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सवाल यह है तो कि ऐसे क्यों है हम । इस सवाल का जवाब शायद सैकड़ों साल पहले तय की गई वर्ण व्यवस्था में छुपा हो शायद । जब यह तय हुआ कि राजा के बेटे को ही राजा होना है और सफ़ाई कामगार के बेटे को बाप का काम अपने सर लेना ही पड़ेगा, तब उम्मीदें नष्ट हुई , उदासीनता जन्मी और शायद इस आत्मकेन्द्रियता की नींव पडी। नएपन से विरक्त समाज ने कोई नृप होय हमें क्या हानि वाली विचारधारा को नियति मान लिया , लगातार बीमार होता चला गया , संवेदनाएं सूखी और हम अपने तक ही सिमटते चले गये । ऐसे में लापरवाही, असावधानी, जो होगा ठीक होगा, देखा जायेगा , कोई कुछ नहीं कर सकता ये सब बातें अब यह हमारा स्वभाव है ।
हम अब भीड़ होकर भी अपने-अपने एकांत के निवासी है । यह मानते है और ठीक ही मानते हैं कि जब कोई कुछ नहीं करता तब राम जी करते है । हम हमेशा से उनके सहारे हैं और अब भी वो ही खिवैया है हमारे डगमगाते बेड़े के । उम्मीद करना चाहिये कि इस बार भी वो ही हम सभी को पार लगायेंगे ।