ओहदे की व्यथा
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राजेश बाबू सन 2000 में बैक से सेवा निवृत्त हो कर इन्दौर शहर मे बस गए थे।उनकी दो पुत्री के विवाह में प्रोविडेंट फन्ड से मिला पैसा लगभग पूरा खर्च हो चुका था। पेन्शन से फ्लैट की किश्त और अन्य खर्चे बड़ी खिचतान से पूरे हो पाते थे।पिछले माह पत्नी का स्वास्थ्य खराब होने के कारण काफी अव्यवस्था हो गई थी।दवाई का खर्च काफी लगने के कारण फ्लैट की किश्त भी नहीं भर पा रहे थे।कोरोना के चलते बाहर न जा पाने के कारण घर में किराने का सामान नहीं खरीद पाए थे। पिछले तीन दिन से आटा खत्म होने से मात्र दाल चावल से काम चल रहा था, आज चावल और जेब के पैसे दोनों जवाब दे गए थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। बार बार गरीबों के लिए मुफ्त भोजन देने वाली संस्था का नंबर निकाल कर फोन करने के लिये अंगूठा आगे बढ़ाते और वापस खीच लेते। बैंक की नौकरी की इज्जत और नहीं बढ़ने वाली पेंशन के बीच अपने ज़ज्बातों से जूझ रहे थे। सुभाष शर्मा