शिखर का घमंड

शिखर अपनी उतंग ऊंचाई पर इतरा कर घमंड से आसमान को छूने का प्रयास करते है। शायद वो नहीं जानते कि क्षितिज एक अस्तित्वहीन स्थान है जो समस्त सृष्टि को अप्राप्य है।

गर्व से अपना मस्तक उठा कर क्षितिज पर नजर रखने वाले सिर्फ ऊपर ही उठते जाते है। धरा से दूर जाते हुए अपने सभी प्रियों से दूर उतंग क्षितिज की आभा में स्वयं को प्रकाशवान समझते हुए दूर और दूर होते जाते है। ऊंचाई बढ़ते-बढ़ते इतनी हो जाती है कि सिर्फ धवत रंग की सख्त और रूह को हिला देने वाली बर्फ के सिवाय कुछ भी नहीं रहता है। प्रकृति के सारे रंग दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते है।निस्तब्धता का वातावरण चारों तरफ छाया रहता है।

सुभाष शर्मा


हालांकि उच्च शिखर की तलहटी में समस्त प्रकृति प्रदत्त सुन्दरता एवं उत्तम सृष्टि जनित वस्तुएं उपलब्ध रहती है।किन्तु शिखर की चोटी की नजर सिर्फ क्षितिज पर टिकी रहती है।अपनी तलहटी में बसी प्रकृति को तुच्छ मान शिखर उनसे दूरियां बनाए रखता है और अपने आप से अपनी खामोशियों से जूझता रहता है।

ऊंचाईयों पर पहुंचकर अपने पैरों की दिशा को न देखते हुए सिर्फ और सिर्फ ऊपर देखने वालों की नियति में सिर्फ ठंडी तन्हाई, खामोशी और बर्फ जैसा सूखापन ही आता है।

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